Prakaash kee khoj karo jee
सिमरन और ध्यान
हमारा रूहानी सफर पैरों
के तलवों से
लेकर सिर की
चोटी तक है
और इस सफर
की दो मन्ज़िले
हैं। एक आँखों
तक है और
दूसरी आँखों के
ऊपर।हमारे शरीर के
अंदर आत्मा और
मन का जो
स्थान है, वह
हमारी आँखों के
पीछे हैं, जिसे
मुसलमान फकीरों ने नुक़्तए-सुवैदा कहकर बयान
किया है,हज़रत
ईसा ने जिसे
घर का दरवाज़ा
कहकर समझाया है।ऋषि-मुनियों ने उसका
वर्णन शिव नेत्र
और दिव्य-चक्षु
कहकर किया है।
गुरु नानक साहिब
उसे घर-दर
(घर का दरवाज़ा)
या तिल कहते
है अगर हम
कोई बात भूल
जायें और उसे
याद करना चाहे
तो हमारा हाथ
कुदरती तौर पर
माथे पर टिक
जाता है। किसी
भूली हुई चीज़
को याद करने
के लिये हम
कभी टागों-पैरों
पर हाथ नही
टिकाते।आँखों के बीच
और पीछे के
स्थान का हमारे
सोचने-विचारने के
साथ बड़ा गहरा
संबंध है। हम
सब का ख्याल
यहाँ से उतरकर
नौ द्वारों के
ज़रिये सारी दुनिया
के अंदर फैल
रहा है।
गुरु रामदास जी फरमाते
है:-
"मन खिन खिन
भरम भरम बहु
धावे तिल घर
नही वासा पाईऐ
।।
गुरु अंकस सबद
सिर धारिओ घर
मंदर आण वसाईऐ
।।"
हमारा ख्याल तीसरे तिल
से उतरकर पल-पल सारी
दुनिया में फैलता
जाता है और
मन एक क्षण
के लिए भी
आँखों के पीछे
नही उतरता। जब
तक मन आँखों के
पीछे नही ठहरता
तब तक यह
अपने घर त्रिकुटी
में जाकर नही
समा सकता। हमारे
शरीर के नौ
दरवाज़े है-दो
आँखे, दो कान
के सूराख, दो
नाक के सूराख, मुँह और
नीचे दो इंद्रियों
के सूराख। इन
नौ द्वारों के
जरिये हमारा ख्याल
सारी दुनिया में
फैलता है।कितनी ही
अंधेरी कोठरी के अंदर
जा कर क्यों
न बैठ जाये,
बाहर कितने भी
ताले क्यों न
लगे हो,हमारा
मन वहाँ नही
होगा, बाहर सारी
दुनिया में फैला
हुआ होगा। हमारे
मन को दलीलें करने
की और सोचने
की जो आदत
पड़ी हुई है, इसको महात्मा
सिमरन करना कहते
हैं।
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