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Jaigurudev bada satsang





जयगुरुदेव

भटक  भटक  संसार  में, भोगे  कष्ट  अनेक।
दुक्ख कष्ट  सब ही  मिटे, गही गुरू की  टेक।।
तरे    कोई  गुरु  बिना, कोटिन  करे उपाय।
कर्णधार  सतगुरु  बिना, भव में  गोता  खाय।।
जीव  बँधा मोह पाश में, होय  नहीं  छुटकार।
सतगुरु  जी  पल  एक  में, देते  बन्ध  निवार।।
गुरु पद रज मस्तक धरै,करे सेव  चित  लाय।
आधि व्याधि नाशे सकल,पाप ताप बिनसाय।।
काल कराल के वश पड़ा,जीव सदा दुख पाय।
गुरु  बिन  उसके  त्रास से, सके कोई बचाय।।
जीवों  के  कल्याण  हित, कीन्हीं  दया  अपार।
सेवा   का  गुरुदेव   ने,  खोल   दिया  भण्डार।।
तन मन  से  सेवा  किए, मन निर्मल  हो  जाय।
घट  में   ही  गुरुदेव  के, सो  जन  दर्शन  पाय।।
ताते   श्रद्धा    प्रेम   से,  करो  गुरू  का  ध्यान।
जिनके कृपा कटाक्ष से, सब विधि हो कल्यान।।
देखें      अवगुण   मेरे,  सतगुरु   करुणागार।
सब सुख पाये सहज ही, सतगुरु  कृपा  अपार।।
फल  कारन  सेवा  करै, तजै    मन  से  काम।
कहँ  'कबीर'  सेवक  नहीं, चहै   चौगुना   दाम।।
सेवक   फल  माँगै  नहीं,  सेव  करै   दिन  रात।
कहँ 'कबीर' ता  दास  पर, काल करै नहिं  घात।।

'दादू'  इस   संसार   में,  ये   दुइ   रतन   अमोल।
इक  साईं  इक  संतजन,  इनका  मोल    तोल।।
सतगुरु   कीया  फेरि  कर,  मन  का  औरे  रूप।
'दादू'   पंचौं    पलटि   करि, कैसे    भये   अनूप।।
बार   बार   यहु   तन   नहीं, नर   नारायण   देह।
'दादू'   बहुरि      पाइये, जन्म   अमोलक   येह।।
'दादू'  सब  जग  निरधना, धनवन्ता  नहिं   कोय।
सो धनवन्ता  जानिये, जाके "नाम" पदारथ  होय।।
साहिब जी के  "नाम" माँ, मति बुधि ग्यान विचार।
प्रेम   प्रीति   सनेह   सुख, 'दादू'   ज्योति   अपार।।
साहिब जी के "नाम" माँ, सब  कुछ  भरे  भण्डार।
नूर     तेज    अनन्त    है,   'दादू'     सिरजनहार।।

घड़ी  पहर  में  कूच  तुम्हारा, मन  तुम  भयो  अनारी  हो।
केहि  कारन  धनधाम  सँवारहु, नाहक़  करहु  बेगारी  हो।
जम  राजा  से  का  तुम  कहिहौ,  पूछै   दै   दै   गारी  हो।
घर   की  नारि  फेरि  मुँह  बैठी, बड़ी  रही  हितकारी  हो।
गाँठी   दाम   राह      पैंड़ा,  बूड़ि   मुए    मँझधारी  हो।
'पलटुदास'  संतन   बलिहारी,  हमको   पार   उतारी  हो।

धाम  अपने चलो भाई,  पराए  देश  क्यों रहना।
काम अपना करो जाई, पराए काम नहीं फँसना।

संत-महात्मा जीवों को समझाते हैं कि यह मृत्युलोक काल-माया का देश है। जीवात्मा तो उस लोक की वासी है जहाँ अँधेरा कभी होता ही नहीं, दुख का नामोनिशान नहीं है। वहाँ तो आनन्द ही आनन्द है। यहाँ पर हम लोग जो भी काम कर रहे हैं, उनमें अपना कुछ भी नहीं है, सब कुछ छोड़ कर जाना है और इसका उपभोग दूसरे लोग करेंगे। वैसे देखा जाए तो धन संचय निरर्थक ही है क्योंकि "पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय" यानी बेटा अगर लायक हुआ तो अपने लिए स्वयं सब साधन जुटा लेगा और अगर नालायक हुआ तो जो कुछ भी होगा सब गवाँ देगा। एक चलना तो यह है कि हम संत सतगुरु के बताए रास्ते का अनुसरण करके अपनी मंज़िल हासिल कर लें और दूसरा चलना कोल्हू के बैल की तरह का है जिसकी आँखों पर परदा पड़ा रहता है और लीक पर चलता रहता है किन्तु पहुँचता कहीं नहीं है यानी जहाँ से चलता है, घूम कर वहीं पहुँचता है।

बँधे  तुम  गाढ़े  बंधन  आन।
पहिला    बंधन    पड़ा    देह    का,   दूसर    तिरिया     जान।
तीसर      बंधन      पुत्र     बिचारो,  चौथा     नाती        मान।
नाती   के  कहुँ   नाती  होवे, फिर  तो  वा  को  कौन  ठिकान।
धन  संपति  और  हाठ  हवेली,यह  बंधन  क्या  करूँ  बखान।
मरे   बिना   तुम   छूटौ  नाहीं, जीते   जी  तुम   सुनो    कान।
जगत  लाज  और  कुल  मर्यादा, यह  बंधन  सब  ऊपर  ठान।
लीक  पुरानी  कभी    छोड़ो, जो  छोड़ो  तो  जग  की   हान।
काल दुष्ट तुम बहु विधि बाँधा, तुम  ख़ुश हो  के  रहो गलतान।
सतगुरु  स्वामी  शरण  गहो अब, तो  कुछ  पाओ  उनसे  दान।

काशी में कबीर साहब जब घूमने जाते थे तो गाँव के बाहर एक आदमी अक्सर मिलता था। एक दिन कबीर साहब ने उससे कहा कि "भजन किया कर" वह बोला कि "बच्चे अभी छोटे-छोटे हैं, वे जवान हो जायँ, फिर भजन करूँगा" जब बच्चे जवान हो गए तो कबीर साहब फिर मिले और कहा कि "भजन किया कर" वह कहने लगा कि "इनकी शादियाँ हो जायँ, फिर करूँगा" जब शादियाँ हो गईं तो कबीर साहब ने कहा कि "अब क्या विचार है ?"  तो बोला कि "पोतों का मुँह देखने की इच्छा पूरी कर लूँ," जब पोते हो गए तो कबीर साहब फिर मिले और कहा कि "अब तो भजन कर" जवाब दिया कि "पोते छोटे-छोटे हैं, जवान हो जायँ और इनकी शादियाँ हो जायँ तब भजन करूँगा" कुछ समय बाद कबीर साहब फिर वहाँ गए तो वह नहीं मिला और पूछा कि "बाबा कहाँ है" ? तो बच्चों ने बताया कि वो गुज़र गया।

वह आदमी गाय-भैंस पालता था और एक गाय उसे बहुत प्यारी थी। जब वह मरा तो गाय के पेट में आया और बछड़ा बना। कबीर साहब ने ध्यान लगाया तो देखा कि उसे बछड़े का जन्म मिला है। बछड़ा जवान होकर बैल बना तो लड़कों ने उसे हल में ख़ूब जोता और बूढ़ा होने पर जब काम का नहीं रहा तो उसे बैलगाड़ी वाले को बेच दिया। उसने भी कई साल तक बैलगाड़ी में जोता। जब उसके भी काम का रहा तो तेली के हाथ बेच दिया।  उसने भी कई सालों तक कोल्हू में जोता। जब वहाँ भी निकम्मा हो गया तो उसे कसाई को बेच दिया। कसाई ने उसे काट कर माँस बेच दिया और चमड़े को नगाड़ा बनाने वाले ने ले लिया और उससे नगाड़ा बना दिया। एक दिन कबीर साहब उसी गाँव से जा रहे थे तो देखा कि उसी आदमी के पोते की शादी का उत्सव चल रहा है और वही नगाड़ा बजाया जा रहा है, जिस पर ख़ूब डण्डे पड़ रहे हैं। तब कबीर साहब ने फ़रमाया---

बैल   बने   हल   में    जुते,  ले    गाड़ी    में    दीन।
तेली    के   कोल्हू    रहे, पुनि   घेर   कसाई   लीन।।
माँस   कटा   बोटी    बिकी, चमड़न  मढ़ी  नक्कार।
कुछ  को  करम  बाक़ी  रहे, तिस  पर  पड़ती  मार।।

एक राजा था, उसने अपने अधिकारियों-कर्मचारियों को बुला कर कहा कि मैं जंगल में शिकार के लिए जाना चाहता हूँ। सारी तैयारियाँ करके राजा उनके साथ जंगल की ओर चला गया। राजा को एक शिकार दिखाई दिया और उसके पीछे भागा। वह अपने साथियों से बिछुड़ कर  अकेला जंगल में रास्ता भटक गया। दौड़ते-दौड़ते उसे तेज़ प्यास लगने लगी, थोड़ी दूर पर एक जलाशय दिखा और राजा घोड़े से उतर कर घोड़े को एक पेड़ की एक डाल में बाँध कर पानी पीने के लिए जलाशय की ओर बढ़ा। अचानक घोड़े ने झटका दिया जिससे डाल टूट गई और घोड़ा वापस जाकर वहीं रुका जहाँ से आया था। घोड़े को अकेला देखकर सब अधिकारी-कर्मचारी परेशान हुए कि राजा साहब कहाँ चले गए ?उन्होंने बहुत तलाश किया पर राजा का पता नहीं चला और उधर राजा भी इधर-उधर पैदल भटक रहा था। फिर देखा कि एक महात्मा जी चले रहे हैं। राजा ने आवाज़ दी--"महाराज ! मुझे रास्ता बताइए, मैं जंगल में भटक गया हूँ "  

महात्मा जी ने कहा कि " मुझे तो तेरी ही तलाश थी। अब मेरे सिवा और कोई तुझे रास्ता नहीं दिखा सकता है " वहीं पर महात्मा जी ने राजा को बिठा कर थोड़े से सत्संग वचन सुनाए और कहा कि " जैसे तू अपने राजमहल से आकर जंगल में रास्ता भटक गया, इसी तरह तू अपने धुरधाम यानी सच्चे मालिक के घर से आकर यहाँ दुनिया के जंगल में भटक गया। अब अगर कोई तुझे तेरे सच्चे घर का रास्ता बताएगा तब तू अपने सच्चे घर पहुँचेगा, तो बता तू अपने घर चलना चाहेगा ?" राजा ने कहा कि " हाँ चलूँगा " महात्मा जी ने तरह-तरह की बातें पूछ कर उसे ठोंका बजाया। फिर पूछा कि " तू तो राजा था, तेरे बड़े फौज-फाटे थे लेकिन अब तेरा यहाँ कोई साथी है ?"  राजा ने कहा-- "नहीं "  

महात्मा जी ने कहा कि " देख यहाँ पर अब केवल मैं हूँ और तू है। मैं तुझे तेरे सच्चे घर का रास्ता बताता हूँ।"  महात्मा जी ने रास्ते पर चलाया और दया करके अन्तर में अनुभव भी करा दिया। छह महीने तक राजा महात्मा जी के साथ रह कर पूरा पक्का हो गया। महात्मा जी ने कहा कि " अब तेरी आन्तरिक सफ़ाई हो गई। समय पूरा होने पर अपने सच्चे घर में आराम से रहेगा।अब तू वापस जाकर अपना राज्य सँभालो।"  राजा ने कहा कि " महाराज मुझे नहीं जाना है और मुझे राज-पाट नहीं चाहिए।" महात्मा जी ने कहा कि " उसे मेरा काम समझ कर करना तो मोह- माया में फँसोगे नहीं।"

नीक    लागे  बिन  भजन  सिंगरवा।
उहाँ  कहि  आयो  इहाँ  बरत्यो  नाहीं, भूल  गइल  तोरा  कौल  कररवा।
साँचा   प्रेम   घट   उपजत   नाहीं, भेष   बनाया   रँग  लीन्ही  कपड़वा।
बिन रे भजन तोरी    गति  होइहैं, बाँधल जाइब  तू  जम  के  दुअरवा।
"दूलनदास"  के  साईं "जगजीवन", गुरू  के  चरन  पे  हमरो  लिलरवा।

मनुष्य सृष्टिकर्ता के कला-कौशल की अनुपम कृति है, जो प्रकृति की सम्पूर्ण शक्तियों का केन्द्र तथा समस्त गुणों एवं विद्याओं से सम्पन्न है। यह मानव जन्म पिछले कई जन्मों के शुभ कर्मों का फल है। यह भोग एवं कर्म योनि है जबकि शेष योनियाँ केवल भोग योनि हैं इसलिए वे जनम-मरण यानी आवागमन के चक्र से मुक्ति का कोई उपाय नहीं कर सकती हैं जबकि मनुष्य पूर्ण सन्त सतगुरु की शरण लेकर उनके बताए मार्ग पर चलकर आवागमन के चक्र से मुक्त हो सकता है। ऐसा अनमोल अवसर पाकर जो मुक्ति का प्रयास नहीं करता है तो वह अन्त में काल, कर्म और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है। मानव शरीर का प्रत्येक अंग इतना बहुमूल्य है कि लाखों करोड़ों रुपये व्यय करने पर भी प्राप्त नहीं हो सकता है। एक बार संत कबीर साहब कहीं जा रहे थे तो देखा कि एक आदमी भिक्षा माँगते हुए ईश्वर को अपशब्द भी कह रहा था कि "उसने मुझे कुछ नहीं दिया, कंगाल बना कर मेरे साथ अन्याय किया है" 

 कबीर साहब ने उससे कहा, "अरे भाई ! तुम तो असीम सम्पदा के मालिक हो, फिर अपने को कंगाल कैसे बता रहे हो ? भिक्षा किस कारण माँग रहे हो ? और ईश्वर का शुकराना अदा करने के बजाय उसे बुरा बता रहे हो ?" उसने कहा, " मैं सारा दिन भिक्षा माँग कर जैसे तैसे पेट भरता हूँ। किसी किसी दिन तो भीख मिलने पर भूखा ही रहना पड़ता है।" कबीर साहब बोले, "भाई ! तुम कंगाल हो तो ऐसा करो कि तुम अपनी एक आँख मुझे दे दो, इसके बदले में मैं तुम्हें दस हजार रुपये देता हूँ " भिखारी बोला," मैं आँख नहीं दे सकता, भला अन्धा होकर क्या करूँगा?" फिर कबीर साहब ने उसके एक एक अंग के बदले बीस, तीस, पचास, अस्सी हजार और दो तीन लाख रुपये देने का आग्रह किया। उस भिखारी ने कहा, "मैं किसी भी मूल्य पर अपने शरीर का कोई भी अंग नहीं दे सकता हूँ।

 तब कबीर साहब ने कहा, "जब तुम्हारा एक एक अंग इतना अमूल्य है तो तुम कंगाल कैसे हुए ?ऐसे अनमोल शरीर को पाकर तुम सतगुरु से रास्ता लेकर मालिक को प्राप्त कर अपना लोक परलोक सँवार लो।"
शेख शादी का कहना है कि मनुष्य की एक-एक श्वाँस की क़ीमत दो जहानों से बढ़ कर है किन्तु खेद है कि प्रमादी मनुष्य इन्हें यों ही व्यर्थ गँवा रहा है। मनुष्य का संसार में आने का उद्देश्य लोभी की दृष्टि में दौलत संचित करना, विद्वान की दृष्टि में विद्या हासिल करना, वैग्यानिक तथा शोधकर्ता की दृष्टि में नूतन आविष्कार करना और बादशाह की दृष्टि में साम्राज्य विस्तार करना है जो कि सर्वथा भूल है। यह सब तो नाशवान हैं और यहीं छूट जाएँगी, साथ जाने वाली नहीं हैं। बड़े बड़े पराक्रमी, विद्वान, धनवान, सेठ साहूकार, राजा महाराजा, मुल्ला पंडित पुजारी सभी क्रूर काल के ग्रास बन गए।
         
आगाह अपनी  मौत से, कोई  बशर नहीं।
सामान सौ बरस का, पल की ख़बर नहीं।।

मनुष्य शरीर पाने का एकमात्र लक्ष्य अविनाशी प्रभु तथा शाश्वत  सुख शान्ति को प्राप्त करना है। जिस प्रकार टूटे मोती या काँच को जोड़ा नहीं जा सकता है, पेड़ से गिरे हुए फल को फिर से शाखा में लगाया नहीं जा सकता है और फटे हुए दूध को जमा कर दही नहीं बनाया जा सकता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म का दुर्लभ सुअवसर एक बार हाथ से निकल जाने पर यह लौट कर दुबारा हाथ नहीं आता है।
          
 जाकी पूँजी श्वाँस है, छिन आवे छिन जाय।
 ताको  ऐसा  चाहिए,  रहै  "नाम" लौ  लाय।।

वैसे तो हर आदमी अपनी अपनी तरह से कोई कोई "नाम" ले भी रहा है, कथा-भागवत, पूजा-अर्चना, गंगा-स्नान, रोजा-नमाज, गुरुग्रन्थ का पाठ और नाना देवालयों में मत्था भी टेक रहा है, फिर भी इनसे फ़ायदा उसी तरह नहीं हो रहा है जैसे कालातीत (Expired) दवाओं के सेवन से रोगों में लाभ नहीं होता है, इसीलिए किसी को सुकून, शान्ति, ख़ुशहाली और बरकत नहीं मिल रही है।

एक राज्य में बहुत उच्च कोटि के एक संत रहते थे। जब उनका दूर दूर तक प्रचार हुआ तो एक दिन वहाँ का राजा भी उनके पास पहुँचा। संत जी उसी समय कहीं यात्रा पर जा रहे थे, इसलिए बाद में आने के लिए कहा लेकिन राजा ने विनती की कि कुछ तो बता दीजिए। संत जी ने कहा कि " अच्छा, मेरे लौटने तक "राम-राम" नाम जपना, जब आऊँगा तब आगे बताऊँगा।"

राजा ने मन ही मन सोचा कि इन्होंने कुछ नई बात तो बतायी नहीं। यह तो मैं बहुत बार ले चुका हूँ। इसलिए राजा ने उस पर कोई अमल नहीं किया।। कुछ दिन बाद संत जी राजा के दरबार में पहुँचे। वे तो अन्तर्यामी थे, जान गए राजा के मन की बात कि इन्होंने कुछ अमल नहीं किया। संत जी ने अचानक सिपहसालार को बुला कर कहा, "राजा को गिरफ़्तार कर लो।" वह चुपचाप खड़ा देखता रहा कि संत जी कह क्या रहे हैं? संत जी ने कई बार कहा किन्तु उसने वैसा नहीं किया। राजा ने सोचा कि शायद संत जी लोभ में आकर मेरा राज्य हड़पना चाहते हैं और गुस्से में उसी सिपहसालार को हुक्म दिया कि "इस ढोंगी को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दो।"

 उसने तुरन्त संत जी को गिरफ़्तार कर लिया। संत जी हँसने लगे। राजा ने हँसने का कारण पूछा तो संत जी ने कहा, "राजन् ! जो शब्द मैंने कहे वही आपने भी लेकिन सिपहसालार ने मेरे हुक्म पर अमल नहीं किया क्योंकि उसके अधिकारी आप हो इसलिए आपके हुक्म की तामील फ़ौरन की। इसी तरह प्रभु का नाम  संतों के आधीन है। प्रभु का नाम दो तरह का है--ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक। ध्वन्यात्मक नाम तो अनादि और अपरिवर्तनीय है जबकि वर्णात्मक नाम समय समय पर उस वक्त के संत सतगुरु द्वारा जागृत और सिद्ध किया जाता है और उस समय उसी नाम से जीवों का कल्याण होता है। जगत में मालिक के जितने नाम प्रचलित हैं उन्हें तत्कालीन संतों ने जागृत किया था, उन नामों से उन्हीं कालों में लाभ हुआ। इसीलिए आज लोग दुखी हैं।"

फिर संत जी ने राजा को गोपनीय ध्वन्यात्मक नाम बता कर सुमिरन, ध्यान, भजन की विधि समझा कर उनकी जीवात्मा को आवागमन से मुक्त करा कर सच्चे देश में पहुँचा दिया जहाँ से फिर काल माया के देश में नहीं आना पड़ता है।

वर्तमान में प्रभु का जागृत सिद्ध नाम "जयगुरुदेव" है जो शाकाहारी, सदाचारी नशामुक्त व्यक्ति के लिए किसी भी तरह की मुसीबत में मददगार है। इसलिए सब लोग उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते, काम-धाम करते हुए अखण्ड नामध्वनि " जयगुरुदेव जयगुरुदेव जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव " यथासंभव अधिकाधिक करते रहें।

जयगुरुदेव

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