Dharti ke samst jeev char
***जयगुरुदेव***
भक्तों के कल्याण हित,
लिये सन्त अवतार।
सेवा सत्संग भक्ति का,
खोल दिया
भण्डार।।
ग्यान चक्षु खुलि जात है,
सतगुरु कृपा प्रताप।
श्रद्धा से सेवा किये, मिटें सकल संताप।।
जिस सेवक के चित्त में,
गुरू ध्यान बसि जाय।
दुक्ख शोक चिन्ता कभी, ताके निकट न आय।।
गुरु बिन कौन बतावहि,
सत् असत् का भेद।
सत् वस्तु जाने बिना, मिटें न संशय खेद।।
मम अवगुण देखो नहीं,
अपना बिरद संभार।
अपनी दया से सतगुरु,
कर दो भव से पार।।
कर साहिब से
प्रीत रे मना,
कर साहिब से प्रीत।
ऐसा समय बहुरि नहिं पइहौ,
जइहैं औसर बीत।
तन
सुन्दर छवि देखि
न भूलौ,यह बारू की भीत।
सुख संपति सुपने की बतियाँ,
जैसे तृन पर सीत।
जाही कर्म परम पद पावै,
सोई कर्म कर मीत।
सरन
आये सो सबहिं
उबारै, यही साहिब की रीत।
कहैं
'कबीर' सुनो भाई साधो, चलिहौ भव जल जीत।
संकेत:- औसर-
अवसर /मौका; बारू-
बालू; भीत-
दीवार; तृन-
तृण/ घास; सीत-
ओस;
भजन जिसने किया प्रभु का,
वही नर तन क फल पाया।
बजा कर "नाम" का डंका,
अमर पदवी को अपनाया।
सदा सन्मुख रहै झाँकी, सगुन निरगुन जो कहलाया।
रमे सबमें वही स्वामी,
उन्हीं की सब यह है माया।
दीनता प्रेम से मिलते, यही प्रभु को सदा भाया।
आप को मेटि जो देवै, करैं ता पर तुरत दाया।
सहारे जो रहे प्रभु के, और सब बात बिसराया।
वही सच्चा बहादुर है, 'दास
पहलवान' गुन गाया।
पुण्य
पुंज बिनु मिलहिं न सन्ता।
सत संगति संसृति कर
अन्ता।।
जब
कछु काल करिय सतसंगा।
तबहिं होइ सब संशय भंगा।।
तात स्वर्ग अपवर्ग
सुख धरिय
तुला इक अंग।
तुलै
न ताहि सकल मिलि जो सुख लव
सत्संग।।
अर्थात्
जब संचित पुण्य कर्म प्रचुर हो जाते हैं,
तब संतों का मिलन होता
है और कुछ समय
तक उनके सत्संग सुनने से समस्त शंकाओं
व भ्रमों का अन्त हो
जाता है। तराजू के एक पलड़े
में संसार और स्वर्ग बैकुंठ
के वैभव व सुख को
और दूसरे पलड़े में पल भर के
सत्संग-फल को रखा
जाए तो दूसरा पलड़ा
नीचे रहेगा यानी भारी होगा।
संत-महात्माओं एवं सदग्रंथों के वचन हैं कि धरती के
समस्त जीव मुख्यत: चार श्रेणियों में वर्गीकृत हैं- पिण्डज यानी जो उदर या
झिल्ली से पैदा हों
जैसे -मनुष्य, गाय, बैल, हाथी, ऊँट, भेंड़, बकरी, बन्दर, कुत्ते, बिल्ली आदि; अण्डज यानी जो अण्डे से
पैदा हों जैसे- तोता, कौआ, कछुआ, मछली, मुर्गा, मेढक, सर्प आदि; उष्मज यानी जो गर्मी-पसीना
वगैरह से पैदा हों
जैसे- कीट-पतंग, जूँ, खटमल आदि और स्थावर यानी
जो मिट्टी से पैदा हों
जैसे- शाक-सब्जी, पेड़-पौधे, पर्वत आदि।
इनमें मनुष्य शरीर सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि इसमें
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश सभी
पाँच तत्त्व पूरे हैं, बाक़ी अन्य में नहीं। मनुष्य के अलावा अन्य
पिण्डज में आकाश को छोड़ कर
चार, अण्डज में आकाश व वायु को
छोड़ कर तीन तत्त्व,
उष्मज में दो- जल,पृथ्वी और
स्थावर में केवल एक पृथ्वी तत्त्व
होता है। 30 लाख स्थावर, 27 लाख उष्मज, 23 लाख अण्डज (14 लाख नभचर व थलचर 9 लाख
जलचर) तथा 4 लाख पिण्डज जीव यानी कुल 84 लाख योनियाँ हैं।
जड़ तत्त्वों से
रचित शरीर भी जड़ ही
होगा इसलिए मनुष्य शरीर भी जड़ है
फिर भी यह गतिमान
कैसे है ? जिस शक्ति से यह गतिशील
है और उसकी अनुपस्थिति में
यह जड़ हो जाता
है तब इसे शरीर
नहीं, शव कहते हैं।
उस शक्ति को ही जीवात्मा,
रूह या Soul कहा जाता है, जो परमात्मा की
ही अंश व अविनाशी है।
विचारणीय है कि हमारा
जो भी नाम है
वह जड़ शरीर का
है या चेतन जीवात्मा का
? अगर शरीर का है तो
जीवात्मा रहित शरीर को अमुक व्यक्ति
का शव कहते हैं
यानी जो नाम है
वह जीवात्मा का है।
यह भी विचारणीय
है कि इस मनुष्य
शरीर में आने के पहले हम
कहाँ थे? इस शरीर को
छोड़ने के बाद कहाँ
जाएँगे? पहले जो लोग शरीर
छोड़ कर गए,वे
कहाँ गए? कोई पता-ठिकाना है उनका? लोकाचार
में 'स्वर्गवास' होना कहा जाता है। क्या सब स्वर्ग में
विराजमान हैं? अगर सब वहीं हैं
तो विभिन्न नर्कों एवं चौरासी लाख योनियों में कौन हैं? जब अन्य लोग
यहाँ से चले गए
तो निश्चित है कि हमें
भी जाना होगा। किसी लम्बी यात्रा पर प्रस्थान करने
से पूर्व हम खाने-पीने,पहनने,ओढ़ने-बिछाने का साज-ओ-सामान जुटाते हैं। क्या अन्तिम यात्रा के लिए कोई
तैयारी की? नर तन किस
लिए मिला है? क्या खाने-पीने, मौज-मस्ती करने और दुनिया का
सामान जोड़ने के लिए? जो
यहीं छूट जाना है।ऐसे अनेक प्रश्नों पर न कभी
विचार करते हैं, न उनका उत्तर
जानते हैं और न जानने
की कभी जिग्याशा ही होती है।
अगर जानने की इच्छा होती
तो 'जहाँ चाह वहाँ राह',बताने वाला कोई न कोई मिल
ही गया होता। नन्हीं-सी चिड़िया के
घोंसले को देखें तो
बुद्धि चकित रह जाती है।
मानव बुद्धि भी इसका निर्माण
करने में असमर्थ है। इससे स्पष्ट है कि शरीर
-पालन तथा इन्द्रियतृप्ति के लिए पशु-पक्षियों के पास भी
बुद्धि की कमी नहीं
है किन्तु वह मात्र उदरपूर्ति
व कुटुम्ब-पोषण तक ही सीमित
है।यदि मनुष्य भी धनार्जन, मान-प्रतिष्ठा हासिल करने और सुखभोग की
सामग्री जुटाने में ही व्यस्त रहता
है तो वह अन्यान्य
योनियों से श्रेष्ठ कैसे
हुआ यानी मनुष्य शरीर पाने का उद्देश्य इससे
इतर है।
संतों का कथन है
कि पहले यहाँ कोई रचना नहीं थी।"एक अनीह अनामा,अघ सच्चिदानंद प्रभु
धामा।" सब कुछ धुरधाम
में एक अनामी महाप्रभु
में सिमटा था जो चैतन्य
का महाभंडार था, सभी जीवात्माएँ अपने असली घर यानी निर्मल
चैतन्य देश में अनामी महाप्रभु में समाई थीं,जहाँ कोई मलीनता नहीं है और जीवात्मा
में स्वयं का प्रकाश है।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी।
चेतन अमल सहज सुखराशी।।
परम प्रकाश रूप दिन राती।
नहिं कुछ चहिय दिया घृत बाती।।
अनामी प्रभु की रचना करने
की जब मौज हुई
तो एक हिलोर पैदा
हुई जिससे उन्होंने अलग-अलग मंडल बनाकर उनमें अपने ही अंश यानी
सुतों को 'शब्द' की डोर पर
उतार कर स्थापित कर
दिया, सबसे निचले मंडल में "कालपुरुष"(असली नाम और है जिसे
संत ही बता सकते
हैं) को स्थापित किया।
कालपुरुष ने अपने पिता
की अखण्ड तपस्या से उन्हें प्रसन्न
करके उनके जैसा राज्य और कुछ जीवात्माओं
का भंडार वरदान में माँग लिया। जब कालपुरुष ने
कर्म विधान बनाया तब जीवों को
कर्म करने के लिए स्वतन्त्र
किन्तु उसका फल भोगने के
लिए परतन्त्र कर दिया।
शुभ
कर्मों के बदले स्वर्ग-बैकुण्ठ और अशुभ कर्मों
का फल भोगने के
लिए अनेकानेक नामों के नरक और
84 लाख योनियों का विधान बनाया।
शुभ कर्म करने से कुछ समय
के लिए स्वर्ग-बैकुंठ मिला किन्तु "पुण्य क्षीणे मृत्युलोके"। फिर कभी
अशुभ कर्म बने तो नरक और
चौरासी में जीवात्मा भटकती रही है। कितने
सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग बीत गए, यह जीवात्मा अपने
घर वापस न जा सकी।
शुभ-अशुभ कर्मों का आवरण जीवात्मा
के ऊपर चढ़ने से उसके आन्तरिक
"दिव्य चक्षु"और "सूक्ष्म कान" जिससे मालिक को देखा और
उसकी आवाज़ को सुना जा
सकता है, बन्द हो गये। जीवात्मा
"मन" के अधीन होकर
इन्द्रियों के वशीभूत हो
गई और उसको अपनी
शक्ति का बोध भी
समाप्त हो गया।
जीवात्माओं की पीड़ा और
दुर्दशा को देख कर
आज से लगभग सात
सौ साल पहले अनामी महाप्रभु ने सन्त रूप
धारण किया और सबसे पहले
कबीर साहब प्रकट संत के रूप में
आए। उनके बाद नानक, दादू, दरिया, रैदास, पलटू, भीखा, गोविन्द, बुल्ला, गुलाल, चरनदास, मलूकदास, दूलनदास, ग़रीबदास, सूरदास, गोस्वामी जी, मीराबाई, सहजोबाई, शम्स तबरेज, सरमद, मंसूर आदि अनेक संत-फ़कीर आते रहे और जब तक
सभी जीवात्माएँ निज धाम नहीं पहुँच जातीं, उनका आना ज़ारी रहेगा। पहले युगों की
कठिन साधना की क्रिया यानी
अष्टांग, हठ योग, कुंडलिनी
जगाना,शरीर को आग में
तपाना, एक पैर पर
खड़ा रहना, पेड़ पर उल्टे लटकना,
खाना-पीना छोड़ना आदि इस समय पर
संभव नहीं है और शारीरिक
बाहरी क्रियाकलाप का जीवात्मा से
कोई संबंध भी नहीं है।
शब्दभेदी गुरु न मिलने से
तत्कालीन बड़े बड़े साधकों को माया ने
नीचे गिरा दिया और कोई सफल
नहीं हो सका, इसलिए
कलियुग में संतों ने 'सुरत
शब्द योग' यानी "नाम" का सरल मार्ग
जारी किया जिसे गृहस्थ आश्रम में दुनिया के सभी कार्य
करते हुए थोड़ा समय निकाल कर नर-नारी,
पढ़े-लिखे, अनपढ़, धनी- निर्धन सब कर सकते
हैं। सुरत यानी जीवात्मा 'शब्द' या 'नाम' की डोरी पर
ही निज धाम से नीचे उतारी
गई थी और इसी
से वापस पहुँचेगी। 'शब्द' चेतन और आकर्षित करने
वाला है,इसे ही
आकाशवाणी, वेदवाणी, अनहदध्वनि, कलमा, आयत, गैबी आवाज़ कहा जाता है जो आज
भी हर एक घट
(शरीर) में उतर रहा है लेकिन उसे
शरीर के बाहरी कानों
से नहीं सुना जा सकता है
और आन्तरिक 'सूक्ष्म कान' और 'दिव्य चक्षु' कर्मावरण से बन्द हो
गए हैं। संत सदगुरु द्वारा दिए गए आन्तरिक "नामभेद"
या "नामदान" से ही पर्दा
कट सकता है। वह "नाम" अपरिवर्तनीय है। पहले के संतों ने
भी वही "नाम" दिया और भविष्य के
संत भी वही "नाम"
देंगे किन्तु "नाम" देने की पावर केवल
संतों को है और
उनके सम्मुख उपस्थित होकर ही "नामदान" लिया जाता है। रामचरितमानस में "नाम" की महिमा विस्तार
से बताई गई है----
कलियुग योग यग्य नहिं ग्याना।
एक अधार नाम गुण गाना।।
यहि कलि काल न साधन दूजा।
योग यग्य जप तप व्रत
पूजा।।
नाम लेत भव सिंधु सुखाहीं।
करहु विचार सुजन मनमाहीं।।
साधक नाम जपहिं लव
लाए।
होहि सिद्धि
मणि माणिक पाए।।
चहुँ युग
तीन काल तिहुँ लोका।
भए नाम जपि जीव विशोका।।
अगुण सगुण दोउ सुगम नाम ते।
कहहुँ नाम बड़ ब्रह्म राम ते।।
सो भव
तरि कछु संशय
नाहीं।
नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं।
कहहुँ कहाँ लगि नाम बड़ाई।
राम न सकहिं नाम गुण
गाई।।
दुनिया में लोग अपने मन से अलग
-अलग नाम भी ले रहे
हैं, देखा-देखी, सुनी-सुनाई, अपनी-अपनी तरह से तमाम प्रकार
की उपासना, धर्मग्रंथों का पाठ बिना
समझे- बूझे, उपवास और तीर्थाटन भी
कर रहे हैं जो उसी तरह
कल्याणकारी नहीं हो रहा जैसे
अगर कोई विद्यार्थी नवीन पाठ्यक्रम लागू हो जाने पर
भी पुराने पाठ्यक्रम पर आधारित लिखी
पुस्तक को पढ़कर परीक्षा
देता है तो परिणाम
कैसे अनुकूल होगा ? दुनिया में जो पूजापद्धति प्रचलित
है यानी तीर्थाटन, विभिन्न नदियों में स्नान, पेड़-पत्थर पर जल चढ़ाना,
घंटी बजाना, कथा-कीर्तन या पाठ करना,
उपवास रखना
आदि। ये सब क्रियाएँ
शरीर की बाह्य इन्द्रियों
द्वारा की जाती हैं।
जब अंतिम समय आता है यानी मौत
की घड़ी आती है तब शरीर
के सभी अंग शिथिल और निष्क्रिय होने
लगते हैं फिर उस समय ये
क्रियाएँ कैसे होंगी? इसलिए संतों ने ऐसा सुगम
रास्ता निकाला जिसमें बाह्य इंद्रियों की ज़रूरत ही
नहीं पड़ती। व्यक्ति अंतिम अवस्था में भी बिस्तर पर
लेटे हुए अचेत अवस्था में भी सुमिरन, भजन,
ध्यान कर सकता है,
अगर पहले से इसका अभ्यास
किया है।
नाम रहा संतन आधीना।
संत बिना कोई नाम न चीन्हा।।
कोटि नाम संसार
में, ताते मुक्ति
न होय।
आदि
नाम जो गुप्त जप
बूझे बिरला कोय।।
जीवात्माओं को अपने धाम
पहुँचाने के लिए कलियुग
में प्रकट संतों का आना हुआ।
काल के देश में
जीवात्मा को अपना भी
बोध नहीं है, न भूत का,
न भविष्य का। किन किन योनियों में, नरकों में कितनी यातना सहने के बाद बड़े
भाग्य से नर तन
मिला ताकि आवागमन से छुटने का
यत्न हो सके। "जन्मत
मरत दुसह दु:ख होई "यानी
जन्मने मरने की पीड़ा असह्य
होती है किन्तु जन्म
के समय की पीड़ा अबोध
अवस्था में होने के कारण अब
याद नहीं है और मरने
के समय की
पीड़ा को भोगने वाला
बताने के लिए रहता
ही नहीं है। सहजोबाई ने बताया है
कि दस हजार बिच्छू
एक साथ डंक मारें तो जितनी पीड़ा
होती है, उतनी ही पीड़ा जन्म
और मृत्यु के समय पर
होती है जो कि
वर्णनातीत है। कदाचित बुद्धिवादियों को इस बात
पर विश्वास न हो और
ऐसे लोग यह भी कहते
हुए देखे सुने जाते हैं कि "जो होगा देखा
जाएगा "।
उनसे विनम्र निवेदन है कि परीक्षार्थी
परीक्षा भवन में जाने के पहले ही
जो कुछ चाहे देख सकता है या कुछ
पढ लिख सकता है, परीक्षा संपन्न हो जाने के
बाद तो "देखने" का काम परीक्षक
का हो जाता है।
इसी तरह कुछ देखने सुनने, अपने गुनाहों की माफ़ी के
लिए कुछ करने और गुनाहों से
तौबा करने का समय अभी
है, साँसों की पूँजी ख़त्म
होने पर कर्मफल या
गुनाहों की सज़ा को
"देखना" नहीं "भोगना" होता है। धान का बीज खेत
में बोने पर तभी तक
जमता है जब तक
उस पर छिलका यानी
आवरण रहता है। छिलका हटा देने पर जब वह
चावल हो जाता है
तब खेत में जम नहीं सकता।इसी
प्रकार जनम-मरण की पीड़ा अथवा
जीवात्मा की आवागमन से
मुक्ति तब संभव है
जब उस पर चढ़े
जन्म जन्मान्तरों के शुभ-अशुभ
कर्मों का विनाश हो
और ये कर्म जहाँ
जमा होते हैं वहाँ आग, पानी, गोला, बारूद पहुँच नहीं सकता। शरीर व इन्द्रियाँ जड़
हैं।
परमात्मा व जीवात्मा चेतन
हैं। चेतन की पूजा चेतन
से ही होसकती है।
शारीरिक बाह्य पूजा से कर्म विनाश
संभव नहीं है। काल-माया, देवी-देवताओं, अवतारी शक्तियों का लक्ष्य ही
जीवात्माओं को धुरधाम जाने
से रोकना है। गोस्वामी जी ने लिखा
है -
श्रुति पुराण
बहु कहेउ उपाई।
छूटै
न अधिक अधिक अरुझाई।।
लोमस
ऋषि के बारे में
कहा जाता है कि उनकी
तपस्या से प्रसन्न होकर
शंकर जी ने उनसे
वरदान माँगने को कहा। लोमस
ने अजर-अमर होने की इच्छा बताई
तो शंकर जी ने कहा
कि यह असंभव है,
उम्र चाहे जितनी माँग लो। लोमस ने कहा कि
एक कल्प बीतने पर उनके शरीर
का एक रोम टूटे
और जब शरीर के
सभी रोम टूट जाएँ तब मृत्यु हो।
शंकर जी ने 'एवमस्तु'
कह दिया।
एक
कल्प की अवधि छोटी
नहीं होती।
सतयुग-
17लाख28हजार वर्ष, त्रेता-
12लाख96हजार वर्ष, द्वापर- 8लाख64हजार वर्ष, और कलियुग-
4लाख32हजार वर्ष। चारों युगों को मिला कर
एक चौकड़ी कहते हैं, 72 चौकड़ी को एक मन्वन्तर
और 14 मन्वन्तर को मिला कर
एक कल्प होता है। इस तरह 4 अरब
35 करोड़ 45 लाख 60 हजार वर्ष की अवधि को
एक कल्प कहा जाता है।इतनी लम्बी उम्र का वरदान पाकर
भी उन्होंने झोपड़ी इसलिए नहीं बनाई कि जब यहाँ
से एक दिन जाना
ही है तो झोपड़ी
किस लिए ? लोमस ऋषि को ब्रह्मा जी
का पुत्र कहा जाता है।
जब उन्हें आत्मबोध
हो गया, आन्तरिक दिव्य चक्षु और दिव्य कान
खुल गए यानी पूर्ण
ग्यान हो गया और
अपने पिछले जन्म भी देखने की
शक्ति प्राप्त हो गई कि
कब किस योनि में जन्म लेकर क्या क्या दु:ख भोगा
तो उन्होंने अन्य जीवों के कल्याण और
चेताने के लिए अपने
पिता ब्रह्मा जी से प्रश्न
किया कि "मुक्ति" का मार्ग कौन-सा है, जिसका
उल्लेख हाथरस वाले "तुलसी साहिब"(संवत् 1820--1900 ) द्वारा रचित "घट रामायण" में
इस प्रकार मिलता है----
लोमस ऋषी एक जो भइया।
भाखा
उन सब बिधि बिधि
कहिया।।
पितु से
पूछी मुक्ति की बाता।
गंगा का फल कहौ विधाता।।
पिता--- गंगा
का फल भाखि सुनाई।
गंगा आदि मुक्ति
की दाई।।
लोमस----सहस इकादस गंगा
न्हाया।
जा से जोनि
मच्छ की पाया।।
अनेक जीव मारि मोहिं खाया।
ऐसे बहुत बहुत दुख पाया।।
जे जे तीरथ सबै नहाये।
जल जिव जोनि
माहिं भरमाये।।
पिता----लोमस ऋषि यह सुनिये भाई।
सेवा ठाकुर कीजै जाई।।
लोमस---सहस बरस ठाकुर की सेवा।
दूजा जाना और न भेवा।।
सेवा सिव कीन्ही बिधि भाँता।
फूल पत्र जल
अच्छत साथा।।
येहि बिधि पूजा
करी बनाई।
अन्त जोनि पाहन की
पाई।।
पिता----
पूजौ तुलसी प्रीति
लगाई।
पीपर में
जल नाओ
जाई।।
ऐसी भक्ति करै
मन लाई।
सहजै में
मुक्ती होइ
जाई।।
एक दिया तुलसी पै
लावै।
तो सौ कोटि
जग्य फल पावै।।
लोमस----
सहस तीन तुलसी कौ पूजा।
बृच्छ जोनि पाई येहि बूझा।।
पीपर पूजा बरस हजारा।
ता की बिधि
भाखौं निरबारा।।
कानखजूरा देंही पाई।
बार बार भौ में भरमाई।।
पिता----- एकादसी करौ तुम
जाई।
ता से मुक्ति
सहज में पाई।।
लोमस------सहस बरस एकादसि कीन्हा।
अन्त जनम माखी कौ लीन्हा।।
ऐसे बर्त कीन्ह बहुतेरा।
ता का सुनु बरतंत
निबेरा।।
पिरथम ऐतवार को कीन्हा।
ता से जनम
चील्ह कौ लीन्हा।।
मंगल बहु बिधि
बरत रहाई।
ता से जनम
सूअर कौ पाई।।
अरु पुनि बरत तीज कौ कीन्हा।
कूकुर जनम ताहि से
लीन्हा।।
अरु अनन्त चौदस
पुनि कीन्हा।
ता से जनम ऊँट कौ
लीन्हा।।
और चतुरथी बरत बखाना।
ता से जनम भैंस कौ
जाना।।
पिता--------पुन्य गऊ
का सब से भारी।
या से
मुक्ती होइ विचारी।।
लोमस-----गऊ दान दीन्हा बहुतेरा।
जनम मिला जो बकरी केरा।।
जो तुम
कही सभी हम कीन्हा।
मुक्ति न पाई रह्यो अधीना।।
ऐसी कहाँ कहाँ की गाऊँ।
जेहि पूजौं तेहि
माहिं समाऊँ।।
पिता-------
तीरथ ब्रत सब झूठ पसारा।
नहिं होइहैं या से निरबारा।।
लोमस ऋषि मैं कहौं बिचारा।
संत सरनि से होइ उबारा।।
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