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man indriyon ka daman karana





जयगुरूदेव.......अमृत सत्संग वचन -

मन इन्द्रियों का दमन करना और आपे को छोड़ना

1. मन इन्द्रियों के दमन करने के लिए , और मतों में जो युक्तियाँ है , उनका असर बाहर स्थूल अंगों पर पड़ता है , अंतर के अंतर असर नहीं होता है | मसलन मरीज है , उसके फोड़े का इलाज़ हो रहा है , अगर बाहरी मवाद खारिज किया जावे और अंतर के अंतर जो कील है  - उसको दूर करने का इलाज़ और इंतजाम नहीं किया जावे , तो वह फोड़ा फिर जैसे का तैसा हो जायेगा | संतमत में विकारों का जो तुख्म है , पहले उसको रफा करने का बंदोबस्त किया जाता है , और जो युक्ति बताई जाती है , उसका असर अंतर के अंतर होता है , बाहरी खोल पर नहीं होता है !!

2. और मतों में मन इन्द्रियों का दमन करने के लिए अपना बल-पौरुष लगाते है जिससे आपा पुष्ट होता है , और संतमत में अपना बल पौरुष छोड़ना पड़ता है और अपने को निर्बल और आधीन समझना होता है | इससे अहंकार, जो विकारों की जड़ है , वह कट जाता है | समर्थ उसके सिरपर दया का हाथ रखता है और वही उसके कर्म काटता है , तब उसको यकीन होता है
कि जो कुछ होता है , समर्थ सतगुरु दयाल कि मौज से होता है और वही कर्ता-धर्ता है, और अपने को दीन हीन , नादान समझता है | तब जो उसकी कार्रवाई है , वह आपे कि नहीं होती है |

3.जब यह अपना आपा छोड़ता है , तब कहता है और पुकार -प्रार्थना कर्ता है कि मुझमे कोई गुण नहीं है , मैं नालायक हूँ |  हे सतगुरु दयाल ! आप ही ने शरण में लिया है और आप ही को मेरी लाज है , जैसे तैसे मेरी नाव पार लगा दो |

नामदान

(शाकाहारी पत्रिका वर्ष 2 अंक 27 से साभार)

           एक ग्रामीण प्रेमी का प्रश्न था की बाबा जी 'नामदान' देते है गुरुमंत्र क्यों नहीं देते हैं ? यह एक ऐसा प्रश्न है जो बहुत से पढ़े लिखे लोगों के मस्तिष्क में उठता रहता है | यद्यपि सभी संत महापुरुषों ने नामदान दिया है , नाम की महिमा गाई है किन्तु समझने के कारण पढ़े लिखे और अपढ़ लोगों का प्रश्न एक ही हो जाता है|
         
           नाम में शक्ति है ,ज्ञान है, प्रकाश है  | नाम नामी अर्थात उस परमात्मा से मिलाने का एक माध्यम है | ऐसे अमूल्य नाम का दान वह सद्गुरु देता है जिसे कहते है नामदान | एक तो नाम यह है जिसे दुनिया जप रही है और जप जप कर थक जाती है पर उसे कुछ प्राप्त नहीं होता है चाहे राम नाम हो ,कृष्ण नाम हो ,बुद्ध नाम हो या और कोई नाम हो | ये सारे नाम उन महापुरुषों के हैं जो कभी इस संसार में आये थे , अपने समय के जीवों को समझाया था , परमात्म शक्ति का बोध कराया था | हम उनकी पवित्र स्मृति में उनके  नाम जपते हैं किन्तु वे जिस शक्ति का बोध कराते थे उसका बोध तो हमें वो महापुरुष करा सकेगा जिसने स्वयं अनुभव किया हो जो परमात्मा के भेद को जानने वाला हो | ऐसा महापुरुष नामदान देता है | नाम की शक्ति आप में प्रकट करता है यह है नामदान | यह कान फूंकने का मजमून नहीं है
कबीर साहब कहते है :-
              कनफूका गुरु हद का ,बेहद का गुरु और ,
                             बेहद का गुरु जब मिले ,लगे ठिकाना ठौर |
बेहद का गुरु सतगुरु होता है | वे संत होते है जिनके अन्दर नाम प्रकट है और वे आपको नाम भेद देकर आपको अनुभव कराते हैं |

"संतन मोको पूंजी सौंपी " जिसको नामदान मिलता है उन्हें कुछ प्राप्त होता है वे कुछ देखते है सुनते है | मीरा बाई ने कहा :-
                            नामरतन धन पायो |
                            वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु ,
                            कृपा करि अपनायो ||
ये है नामदान की महिमा | दुनिया में बहुत सारे दान दिए जाते है | अन्न-दान ,वस्त्र दान ,भोजन दान ,पानी दान ,धन-दान ,तुला दान और भी जितने दान है उन सब में सर्वोपरि है गुरु का नामदान | दुनिया के सारे दान मानवी कर्तव्यों के अंतर्गत आते है या शुभ कर्मों का निर्माण करते है | शुभ कर्म क्या ? जीव को बाँधने की बेडी है जो लोहे की होकर सोने की है और परमात्मा मिलता कैसे है ? उसका उत्तर रामायण में है :
                  त्यागहि कर्म शुभा शुभ दायक
                                    भजहिं मोहिं सुर नर मुनि नायक

शुभ अशुभ कर्मों का त्याग कैसे किया जा सकता है ? नामदान मिल जाए तब | नामदान मिले और नाम देने वाला वह महापुरुष अपना परिचय दे दे ,अनुभव दे दे | आप स्वीकार करले कि "हाँ यह सत्य है |"
              यह है नामदान कि महिमा | गोस्वामी जी कहते है :-
                        "नाम रूप दोउ अकथ कहानी
                                        समुझत बने जाय बखानी "

क्या आपको पता है कि
(शाकाहारी पत्रिका अंक 34, अप्रैल 1980 से साभार)

बीमारी तीन किस्म की होती है - एक तो समय और तत्वों की तब्दीली से,  दुसरे बदपरहेजी से , तीसरे प्रारब्ध कर्म के अनुसार | यह तीसरी दवाइयों से नहीं जाती , करम भुगतने पर जाती रहती है |

सात वर्ष तक लड़की को और पांच बरस की उम्र तक लड़के को क्रियावान कर्म नहीं लगते , बाद में लगते है | घोर कलयुग से पहले यह कायदा था कि पांच बरस तक लड़की को और सात बरस तक लड़के को कर्म नहीं लगते थे | कुछ बन भी गए तो कुछ माफ़ हो जाते हैं और कुछ उनके माँ बाप को लग जाते हैं  |

संत सतगुरु का अपनाया हुआ जीव चौरासी नहीं जाता है | अगर भारी कर्म करेगा तो सतगुरु धर्मराज से उसकी सजा दिलवाकर , दुबारा नीच घर में जन्म दिलवाकर सेवा और भक्ति लेकर पार करते है | कभी कभी ऐसा भी करते है कि जीव को चौरासी में उतारकर और कर्म भुगताकर मनुष्य शरीर दिलवा देते हैं |

जब आखिर में सुरत (जीवात्मा) पिंड से ऊपर को सिमटती है तो संतमत के अभ्यासियों को स्वर्ग बैकुन्ठ तक कुटुम्ब परिवार कि याद रहती है | इसके आगे सहंसदल कंवल त्रिकुटी में कुछ सपने कि तरह याद रहती है , इससे परे नीचे कि सुध कम होती चली जाती है और दंसवे वे द्वार पर सूक्ष्म यादगार सत्संगी भाइयों की रहती है | मानसरोवर में स्नान करके इधर की सब सुध जाती रहती है , सिर्फ अंतरी मुकामों की याद रहती है |

            (शाकाहारी पत्रिका अंक 35, अप्रैल 1980 से साभार)

आपके दोनों आँखों के पीछे जीवात्मा यानी रूह बैठी हुई है | उसमें एक आँख , एक कान , और नाक भी है | वह चेतन है और इस जिस्म में जो कि जड़ है इसमें कैद है | बाहर से दोनों आँखों को बंद कर के आत्मा कि द्रष्टि से मस्तक के भीतर ऊपर को देखा जाए तो आसमान नजर आता है | साधना के वक़्त जब जीवात्मा इस शरीर को छोड़कर ऊपर को चलती है तो बहुत ख़ुशी होती है और वह अपने को आजाद महसूस करती है | तब सहंसदल कँवल के आकाश में तीन लोक के मालिक का दर्शन मिलता है जिसको ईश्वर , GOD , खुदा कहते हैं  | है वह एक ही | सारी स्रष्टि को अपनी अनंत किरणों से कंट्रोल कर रहा है | इस आकाश के ऊपर एक दरवाजा ऐसा बारीक है और झीना है जैसे रोजन सुई के नाके का होता है जिसमें से होकर जीवात्मा आगे को चलती है | बक्रनाल टेढ़े ऊँचे रास्ते को पार करती हुई रूह उस आसमान पर पहुँचती है जिसे मुसल्लसी कहते हैं | इसी स्थान को त्रिकुटी कहा जाता है और यह ब्रह्म का स्थान है | वाल्मीकि इसी स्थान पर पहुंचकर ब्रह्म का दर्शन कर के ब्रह्म के समान हो गये | वहां कि लीला और तमाशे तरह तरह के हैं | वहां के आनंद का वर्णन नहीं हो सकता | वहां पहुँचने वाली जीवात्मा ही सुख का अनुभव कर सकती है | आज बाबा जयगुरुदेव की शरण में आने वाले प्रेमी जन जो साधना में समय देते हैं वो नित्य स्वर्ग , बैकुन्ठ , शक्ति लोक , ईश्वरधाम , ब्रह्म लोक और उससे भी ऊपर के लोकों की सफ़र करते हैं और वापस शरीर में जाते हैं | परमात्मा उनके लिए साकार हैं और बराबर वार्ता भी होती है |

जब बच्चा पांच महीने दस दिन तक माता के समान चेतन से परवरिश पा चुकता है तब विशेष चेतन उसमें आता है और बच्चा हरकत करने लगता है | उस वक़्त उसको कई जन्मों की याद रहती है और वह प्रार्थना करता है कि मालिक मुझको इस काल कोठरी से निकालो मैं तुम्हारा भजन खूब करूँगा | वह अंतर के  प्रकाश को देखता है और आवाज को सुनता है मगर जिस वक़्त जनम होता है उसकी सुरत कि तबज्जाह ऊपर से नीचे पिंड और इन्द्रियों कि तरफ उतारी जाती है और एक पर्दा भूल का माया डाल देती है जिससे जीव पिछले जन्म का हाल सब भूल जाता है और नूर देखना और धुन सुनना सब बंद हो जाता है | इसीलिए उसी वक़्त बच्चा रोता है | अगर थाली बजाई जावे या घंटा वगैरा बजाये जाय तो फ़ौरन उसकी तबज्जाह इधर लग जाती है | और उसको कुछ तसल्ली हो जाती है | और रोशनी सामने देखने से भी खुश हो जाता है | जिस बच्चे के प्राण बहुत ही थोड़े है और कुछ जिन्दगी लेकर नहीं आया वह रोता नहीं |

जयगुरूदेव.............

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