ghat ramayan jaigurudeo
।। जयगुरुदेव ।।
अब सूरत पूछे
स्वामी
से, भेद कहो तुम
अपना
मोसे।
याद है
न .. ! सूरत-स्वामी
सम्वाद की ये
लाइनें..! गुरुमहाराज सत्संग में
अक्सर इसे समझाते
थे । उम्मीद
करता हूँ इसे
पढ़कर स्वामी जी
को आप अपने
करीब, इर्दगिर्द महसूस
करेंगे ।
अब सूरत
पूछे
स्वामी
से, भेद कहो तुम
अपना
मोसे।
अब सुरत
स्वामी से पूछती
है कि आप
अपना भेद हमसे
कहो, मुझसे सब
बताओ कि आप
कहां से आये
हो? कौन हो?
और यहां आकर
क्या करना चाहते
हो? आप सारा
भेद हमको बताइये।
वास
तुम्हारा
कौन
लोक
में, यहां आये तुम
कौन
मौज
में।
आपका निवास
स्थान किस लोक
में है? और
यहां मृत्युलोक में
कौन सी मौज
लेकर आये?
देश तुम्हारा
कितनी
दूर, खोजे सुरत न
पावे
मूर।
यहां मृत्युलोक
से आपका देश
कितनी दूर है?
क्योंकि हमने तो
सब जगह खोजा
मृत्युलोक में, स्वर्ग
में भी गये
वहां भी नहीं
मिले, बैकुण्ठ में
गये वहां भी
नहीं मिले, ईश्वर
के लोक में,
ब्रह्म लोक में
वहां भी नहीं
मिले। हमने तो
सब जगह आपको
ढूंढ़ा आपका कहीं
कोई पता नहीं
लगा।
मैं बिछुड़ी
तुमसे
कहो
कैसे, देश पराये आई
जैसे।
ये बताइये
कि मैं आप
से अलग कैसे
हो गयी? और
आपका वह अपना
देश छोड़कर पराये
देश में आकर
कैसे गिरी? मुझे
क्यों आपने अलग
कर दिय।
मेरा हाल
भिन्न
कर
गाओ, देश अपना मोहिं
लखाओ।
अब वह
सुरत कहती है
कि मेरा जो
हाल है उसको
भिन्न-भिन्न करके
बताओ और अपना
देश मुझे दिखाइये।
मैं यहां पर
कैसे आई क्यों
भेजी गई क्यों
काल के देश
में डाली गई
और कर्मों में
क्यों भरमा दी
गई।
मन तन
संग
पड़ी
मैं
कब
से, दुख पाये बहु
तक
मैं
जब
से।
हे स्वामी
मैं इस तन-मन के
साथ कब से
बांध दी गई
और तन में
रह करके नाना
प्रकार के दुख,
कष्ट, यातनाएं मिली
हैं. क्यों इस
तन-मन के
साथ बांध दी
गई? हमारे साथ
ऐसा क्यों हुआ?
क्यों
भूली
मैं
देश
तुम्हारा, आय पड़ी परदेश
निहारा।
हे स्वामी!
ये बताइए कि
मैं आपका देश
मैं कैसे भूल
गयी और परदेश
को अपना देश
समझने लगी।
पाताल
बसो
या
मृत्युलोक
में, स्वर्ग बसो या
ब्रह्मलोक
में।
हे स्वामी
आप बताइए कि
आप पाताल लोक
में रहते हैं
या मृत्युलोक में
रहते हैं, स्वर्ग
लोक में रहते
हैं कि ब्रह्मलोक
में रहते हैं?
विष्णु लोक
बैकुंठ
धाम
में, इन्द्रपुरी या शिवमुकाम
में।
यह बताइये
विष्णु लोक में
या बैकुण्ठ धाम
में, इन्द्रपुरी या
शिव धाम में
आप इनमें से
किस लोक में
रहते हैं?
कृष्णलोक
या
रामलोक
में, प्रकृतिलोक या पुरुषलोक
में।
कृष्णलोक में या
रामलोक में या
प्रकृतिलोक में या
पुरुषलोक में आप
किस लोक में
विराजते हैं?
या तुम
व्यापक
सभी
लोक
में, चार खान चर
अचर
थोक
में।
अब सुरत
कहती है कि
हे स्वामी क्या
आप सब जगह
व्यापक हैं? चारों
खानों में, चौरासी
लाख योनियों में,
नर्कों में। पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े
में भी आप
व्याप्त हैं. किस
जगह पर आप
रहते हैं? और
कहां के रहने
वाले हैं?
क्यों मोहिं डाला
काल
लोक
में, अति भरमाया हर्ष
शोक
में।
मुझे क्यों
काल के लोक
में डाल दिया।
हम यहां आकर
भरम गये. मुझे
पता ही नहीं
है कि मैं
कहां का हूं।
चौरासी में और
नर्कों में मुझे
नाना प्रकार की
यातनायें दी जाती
हैं तो मुझे
आपने यहां काल
के देश में
क्यों डाला ?
अब क्यों
आये
मोंहिं
चितावन, रूप धरा तुम
अति
मन
भावन।
अब आप
बहुत दिनों के
बाद मुझको चिताने
के लिए आये
हो। रूप जो
आपने धारण किया
है मनमोहक और
आकर्षक है। तो
इतने दिनों के
बाद आप आये
हैं क्यों? ऐसी
देर क्यों लगी?
मैं दासी तुम
चरन
निहारे, भेद देवो तुम
अपने
सारे।
कहती है
सुरत कि मैं
आपके चरणों की
दासी हूं. आप
हमको अपना सारा
भेद दे दीजिए.
तब हंस
शब्द
स्वामी
बोले, .. भेद सुनो सुरत
तुम
मैं
कहुं
खोले।
बहुत प्रसन्न
होकर के स्वामी
कहते हैं कि
सुरत अब मैं
तुमको सब भेद
खोल कर कहता
हूं. तुम उसको
ध्यान से सुनो।
जो तू
पूछे
भेद
हमारा, कहूं सभी अब
कर
विस्तारा।
तूने हमारा
भेद पूछा है
तो मैं बताता
हूं विस्तार के
साथ। उसको तू
अच्छी तरह ध्यान
पूर्वक सुन।
मैं
हूं
अगम
अनाम
अमाया, रहूं मौज में
अधर
समाया।
अब वो
कहते हैं कि
मेरा कोई नाम
नहीं है, मैं
अनाम हूं और
अधर में रहता
हूं। यहां किसी
भी लोक में
नहीं हूं। न
मृत्युलोक में, न
स्वर्ग में, न
पाताल लोक में,
न विष्णुलोक में,
न प्रकृति लोक
में, कहीं नहीं।
अधर में रहता
हूं।
पिरथम अगम
रूप
मैं
धारा, दूसर अलख पुरुष
हुआ
न्यारा।
पहले अगम
रूप धारण किया।
अगम लोक निर्माण
करके वहां अगम
पुरुष को बैठा
दिया। दूसरा अलख
रूप धारण किया।
अलख लोक की
रचना करके वहां
अलख पुरुष को
बैठाया।
तीसर सत्तपुरुष
मैं
भया, सत्तलोक मैं ही
रच
लिया।
तीसरा मैं सत्तलोक
की रचना की
और वहां सत्तपुरुष
को स्थापित कर
दिया। इन तीनों
में मेरा रूप
है अगम, अलख
और सत्तपुरुष में।
मैंने ही इन
तीन लोकों की
रचना की और
इन तीनों पुरुषों
को बैठा दिया।
इन तीनों
में
मेरा
रूप, य्हां से उतरीं
कला
अनूप।
इन तीनों
में मेरा ही
रूप है। और
सत्तपुरुष से ही
कला उतरी है।
यहां नीचे की
सारी रचना सत्तपुरुष
ने की।
य्हां तक
निज
कर
मुझ
को
जानो, पूरन रूप मुझे
पहिचानो।
जो वहां
से यहां आये
हैं वे कहते
हैं कि मुझको
निज कर जानो,
पूरा, इनमें कोई
कमी नहीं- इन
तीन लोकों (अगमलोक
अलखलोक, सत्तलोक) में मेरा
रूप है. इनमें
कहीं भी पहुंच
जाओगे तो मेरे
पास आ जाओगे।
अंस
दोय
सतपुरुष
निकारी, जोत निरंजन नाम
धरा
री।
दो अंश
सत्तपुरुष ने अपने
से निकाल कर
अलग कर दिये-
एक निरंजन और
दूसरी ज्योति।
यह दो
कला
उतर
कर
आई, झंझरी द्वीप में
आन
समाई।
सत्तलोक से सीधा
आवाज आ रही
है यहां सहसदल
कमल तक, यहां
उनको बैठा दिया.
सहसदल कमल में
निरंजन भगवान और झंझरी
दीप में आद्या
महाशक्ति को बैठा
दिया।
यहां
बैठ
तिरलोकी
रची, पांच तीन की
धूम
अब
मची।
यहां सहसदल
कमल में बैठकर
निरंजन भगवान और आद्या
महाशक्ति दोनों ने मिलकर
तीन लोक की
रचना की। सूक्ष्म
लोक में नौ
तत्वों का मसाला-
मन, बुद्धी, चित्त,
अहंकार, शब्द, स्पर्श, रूप,
रस, गंध और
लिंग लोक में
सत्रह तत्वों का
मसाला- दस इन्द्रियां,
चतुष अन्त:करण,
और तीन गुणों
को मिलाकर मसाला
तैयार किया और
मृत्युलोक में सबसे
मोटा स्थूल मसाला
पांच तत्वों और
तीन गुणों का
तैयार किया।
तीन
लोक
से
मैं
रहूं
न्यारा, चार पांच छ:
में
बिस्तारा।
मैं तीन
लोक से परे
हूं। न मैं
ईश्वर के लोक
में हूं, न
ब्रह्म, न पारब्रह्म
के लोक में
हूं। मैं यहां
कहीं नहीं रहता।
मैं तो सत्तलोक
में, अलख लोक
में, अगम लोक
में और अनामी
लोक में ही
रहता हूं। मेरा
वहां अधर में
स्थान है। वह
अचल है, स्थायी
है।
तीन
लोक
एक
बुंद
पसारा, सिंध रूप मैं
अगम
अपारा।
तीन लोक
में हमारी निकाली
हुई एक बुंद
रहती है। मैं
तो अगम अपार
हूं मेरा कोई
भेद नहीं जान
पाया। मेरी कोई
पैमाइश नहीं कर
सकता। मैं अलग
रहता हूं। मेरी
एक बूंद रहती
है तीन लोक
में उसका ये
सारा का सारा
ये सब पसारा
है।
मैं न
पताल
स्वर्ग
नहीं
मिरता, ब्रह्मा विष्णु महेश
न
जुगता।
न मैं
पाताल लोक में
हूं, न स्वर्ग-बैकुण्ठ में हूं।
न ब्रह्मा, विष्णु,
महेश के लोक
में ही हूं।
न आद्या महाशक्ति
न ईश्वर के
लोक में हूं।
नहिं
गोलोक
नहीं
साकेत, इन्द्रपुरी नहिं ब्रह्म
समेत।
न मैं
गोलोक में हूं,
न साकेत लोक
में, न मैं
इन्द्रपुरी में हूं,
न ब्रह्म लोक
में, न मैं
पारब्रह्म में रहता
हूं। मैं इन
सबसे परे हूं।
तीन लोक
व्यापक
मैं
नहीं, बुन्द एक मेरी
य्हां
रही।
मैं तीनों
लोकों में कहीं
भी व्यापक नहीं
हूं। मेरी एक
बूंद वहां से
यहां आई है,
उसी बुंद का
ये सब पसारा
है।
उसी बुन्द
का
सकल
पसारा, वेद ताहि कहैं
ब्रह्म
अपारा।
उसी बुंद
का ये सारा
का सारा तीन
लोकों का पसारा
है। उसी बुंद
को लोग क्या कहते
हैं कि अपार
है और जो
अपार है उसको
जाना ही नहीं।
वेदान्ती याहि
ब्रह्म
बखानें, सिद्धान्ती याहि शुद्ध
पुकारें।
कोई कहता
है कि शुद्ध
ब्रह्म है, तो
वेदान्ती कहते हैं
कि यही ब्रह्म
है, जिसकी जो
इच्छा हुई बुद्धी
में आया वही
कह देते हैं।
लेकिन बूंद तो
बूंद ही है।
इसी का लोग
उपासना करते हैं
और इसी को
अनुमान से कहते
हैं कि ऐसा
होगा वह व्यापक
है उसका नाम
नहीं उसका रूप
नहीं। वो अरूप
है। लेकिन ऐसा
नहीं है, अगर
रूप नहीं है
तो नाम नहीं
है, रूप है
तो नाम है
जब नाम है
रूप है तो
स्थान भी होना
चाहिए। जब नाम,
रूप, स्थान है
तो उसकी आवाज
होनी चाहिए नहीं
तो फिर निर्माण
(रचना) कैसे होगा?
इसलिए आवाज भी
होगी। तो कहते
हैं मेरी एक
बूंद यहां रहती
है। बड़े-बड़े
वेदान्ती और योगी
इसी (बुंद) को
अपार कहकर के
थक गये लेकिन
मेरा भेद इनमें
से किसी ने
नहीं जाना।
इसके
आगे
भेद
न
पाया, सतगुरु बिन उन
धोखा
खाया।
अब वो
यहां आकर समझाते
हैं कि देख
सुरत किसी ने
इनको ऊपर का
रास्ता भेद बताया
नहीं तब ही
यह सारे के
सारे भरम गये।
सब कहते हैं
कि उधर कुछ
नहीं है। जितने
भी वेदान्ती ज्ञानी
हैं सब यही
कहते हैं।
जितने
मत
हैं
जग
के
माहीं, इसी बुन्द को
सिंध
बताहीं।
जितने भी संसार
में मत हैं
उन सबने इसी
बुंद को सिंध
कहा है और
जो अगम अपार
है उसको किसी
ने नहीं जाना।
जो मेरी एक
बुंद है उसी
को ये लोग
चिल्लाते हैं कि
सिंध है।
सिंध
असल
रहा
इनसे
न्यारा, वेद कतेब न
ताहि
बिचारा।
महापुरुष कहते हैं
कि सिंध जो
है इस बूंद
से बिल्कुल अलग
है। इस भेद
को वेद कतेब
कोई जान नहीं
सकता है।
ब्रह्मादिक सब
वेद
भुलाये, ऋषि मुनि करम
भरम
लिपटाये।
ब्रह्मा को वेदवाणी
सुनाई दी थी,
लिख तो दिया
वाणी लेकिन पिता
का उनको भी
दर्शन नहीं हुआ।
यानी निरंजन भगवान
का ब्रह्मा, विष्णु,
महादेव ये भी
उनका दर्शन नहीं
कर सके। जिन्होंने
भेद बताये वह
ही भूल गये।
उन्होंने आवाज उस
खुदा (ईश्वर) की
सुनकर उसको लिखा
और भूल गये।
और ऋषि मुनि
इसी में भुला
जाते हैं। और
वो जो सिंध
है अगम अपार
उसका किसी को
पता ठिकाना ठौर
मालूम ही नहीं
है कि वो
कौन सा रास्ता
वहां जाने का
है।
पीर पैगम्बर
कुतुब
औलिया,
बुन्द
भेद
पूरा
नहीं
मिलिया।
पीर पैगम्बर
कुतुब औलिया ये
तो बूंद का
भी भेद नहीं
जानते। बूंद को
ही नहीं जानते
हैं कि खुदा
कैसा है, उनका
दीदार ही नहीं
किया है।
सुनो
सुरत
तुम
अपना
भेद, तुम हममे थी
सदा
अभेद।
अब वो
कहते हैं कि
देख सुरत तुझमें
मुझमें कोई भेद
नहीं था। तुम
मेरी थी मैं
तुम्हारा था और
मेरा रूप तुम्हारा
रूप अलग-अलग
नहीं था. एक
थीं।
काल करी
हम
सेवा
भारी, सेवा बस होये
कुछ
न
विचारी।
जब सत्तपुरुष
का निरंजन भगवान,
ब्रह्म, पारब्रह्म, महाकाल पुरुष
ने जब अखण्ड
सेवा की तो
मैं उनकी सेवा
से वशीभूत हो
गया। सेवा के
वस होके मैं
प्रसन्न हो गया
तो मैंने कुछ
विचार नहीं किया।
तुमको
मांगा
हमसे
उसने, सौंप दिया तुम
सेवा
बस
में।
उसने हमसे
तुमको मांगा कि
जैसा सत्तलोक में
राज है उसी
तरह का हमको
राज दे दिया
जाए तो फिर
हमने उसकी सेवा
वस होकर के
तुमको दे दिया।
काल
लाय
तन
मन
में
घेरा, दुख सुख पाया
तुम
बहुतेरा।
काल तुमको
हमसे मांग कर
ले आया और
यहां तन-मन
में डाल करके
तुमको बहुत दुख
दिया। काल ने
पाप-पुण्य कर्मों
का विधान बनाकर
अधिकार देकर सबको
यहां फंसा लिया।
दुख में
देखा
तुमको
जबही, दया उठी हम
आये
तबही।
सुरत, जब हमने
तुमको दुख में
देखा तो हमको
दया आ गई
और हम वहां
से चले कि
इनको जगाकर, बताकर,
चेताकर, समझा कर
ले आयेंगे।
आय
किया
हम
शब्द
उपदेशा, शब्द माहिं तुम
करो
प्रवेशा।
आकर के
हमने शब्द का
उपदेश किया कि
सुरतों तुम्हारे घाट पर
ऊपर से नाम
आ रहा है
और तुम इस
तरह से उस
नाम, शब्द के
साथ जुड़ जाओ
तुम्हारी हम मदद
करेंगे। शब्द के
साथ जब जोड़ेंगे
तो तुम शब्द
को पकड़ लोगे
और शब्द तुमको
पकड़ लेगा. न
तो तुम शब्द
को छोड़ो न
शब्द तुमको छोड़ेगा,
सीधे घर (सत्तलोक)
की तरफ चल
दोगे।
जिस शब्द
को, नाम को
आपने छोड़ दिया
वह हमने यहां
जारी किया कि
इस शब्द नाम
को पकड़ो और
सुरत को इसमें
प्रवेश करवाओ. वो नाम
शब्द ही तो
छूट गया है।
वह मिलता नहीं
है और बिना
भेदी के मिलेगा
भी नहीं। कोई
जानकार होगा, बतायेगा तब
ही मिलेगा।
शब्द
शब्द
पौड़ी
हम
रचीं, चढ़ चढ़ पहुंचो
नगरी
सच्ची।
अब वो
महापुरुष कहते हैं
कि शब्दों की
हमने सीढ़ी बनाई।
एक स्थान पर
जाओ, आवाज पकड़ो
फिर ऊपर दूसरे
स्थान (मण्डल) पर पहुंच
जाओ। तो हमने
इस तरह सीढ़ी
बना रखी है.
जिससे सबको आसान
हो जायेगा चढ़ने
के लिए। और
हमने शब्द नाम
का उपदेश जारी
किया है। तुमको
शब्द (नाम) के
साथ जोड़ेंगे और
चढ़ा ले जायेंगे।
बुन्द
देश
तिरलोकी
जानो, रचना मुरक्कब यह
पहचानो।
ये तीनों
लोक बुन्द देश
हैं। त्रिलोकीनाथ ने
यहां रचना तरकीब
से की है।
जड़ चेतन की
मिलौनी करके रचना
की है और
आपको इसमें फंसा
लिया।
मुफरद
रचना
तुम्हरे
देश, सत्त सत्त जहं
सत्त
संदेश।
तुम्हारे देश में
स्वच्छ, साफ और
निर्मल रचना है,
वहां कोई मिलौनी
नहीं है। तो
तुम वहां चलो।
शब्द पर सवार
हो जाओ, एक
पल में अरबों
मील जाओगे. ऐसी
उसकी शब्द की
दौड़ है, सुरत
बस उस पर
सवार हो जाय
तो सट से
चढ़ जायेगी।
य्हां
रचना
तरकीबी
हुई, सो मैं खोल
सुनाऊं
सही।
यहां तरकीब
से रचना हुई
है। कारण, सूक्ष्म,
लिंग, स्थूल रचना
अलग है। इन
चार के अलावां
बारह और जो
हैं उनकी रचना
अलग है। वहां
जो सुरतें हैं
उनको कोई तकलीफ
नहीं है। बस
उनको इतनी ही
तकलीफ है कि
मालिक का दर्शन
नहीं कर सकती
हैं। और वैसे
उधर जा नहीं
सकतीं। जब इधर
से कोई महात्मा
उन लोकों में
जायेंगे, वो जिसको
चाहें उसको ले
जायें। उनको सर्व
सामर्थ्य है ले
जाने का, वहीं
से ले जायेंगे।
मुफरद बुन्द
हमारी
आई, दूसर माया आन
मिलाई।
अब कहते
हैं कि मिलौनी
की बुंद हमारे
पास से आई
और उसके बाद
माया साथ हो
गई। यहां सारा
पसारा बुंद का
ही है।
पांच तत्व
तीनों
गुन
मिले, यह सब दस
आपस
में
रले।
कहते हैं
कि पांच तत्व
पृथ्वी, जल, अग्नि,
वायु, आकाश और
सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण और
दस इन्द्रियां ये
सब मिलकर इन्होंने
रचना तैयार की।
रल मिल
कर
इन
रचना
ठानी, तीन लोक और
चारों
खानी।
कहते हैं
कि इन्होंने सबने
मिल-जुल कर
रचना की। चारों
खानें, चौरासी लक्ष्य योनियां,
नर्क, स्वर्ग, बैकुण्ठ
सबकी रचना की।
वेदान्ती
अब
किया
विचार, नौ को छांट
लिया
दस
सार।
अब सब
इसमें ही फंस
गये, बस यही
विचार करते हैं
कि वो परमात्मा
सर्वत्र है. पता
कुछ है नहीं,
बस मन से
व्याख्या करते हैं।
जहां मिलौनी
तहां
विचार, एक एक में
कहा
विचार।
अब महापुरुष
कहते हैं कि
जहां मिलौनी है
वहीं विचार है,
जहां कोई मिलौनी
नहीं है वहां
कोई विचार नहीं
है। वो एक
रस है। जहां
मिलौनी है वहीं
विचार है- ऐसा
नहीं वैसा, यह
करना, वह नहीं
करना, बस यही
विचार है। और
आप इसमें उलझ
गये।
हमरे देश
एक
सतनाम, वहां विचार का
कुछ
नहीं
काम।
अब स्वामी
कहते हैं कि
देख सुरत! हमारे
देश में केवल
एक सतनाम है
और वह सब
जीवों का मालिक
है। सब जीव
उसी के हैं।
कर
विचार
इन
धोखा
खाया, बुन्द माहिं यह
जाय
समाया।
समझाते हैं कि
विचार करके धोखा
खा गये, चौरासी
नर्कों में चले
गये। यह मनुष्य
शरीर फिर आपको
मिलेगा नहीं, क्योंकि यहां
का इतना ज्यादा
कर्जा (कर्म कर्जा)
लाद लिया जो
अदा होगा ही
नहीं। यह जीव
तमाम मार खा
रहे हैं. इसलिए
हे सुरत, तेरे
लिए दया उमगी,
तो हम तुमको
ले जाने के
लिए आये हैं.
पूरी-पूरी मदद
करेंगे, जो कुछ
भी उसके देश
सा कर्जा तेरे
ऊपर होगा माफ
करेंगे। माफ कर
देंगे, तो तू
कर्जे से वरी
हो जायेगी।
सिंध
भेद
जो
इन
से
कहते,
तो परतीत न
चित्त
में
धरते।
करें दलील
बुद्धी
से
भारी, हंसी उड़ावें वचन
न
धारी।
यह मारग
है
प्रेम
भक्ति
का, चलना चढ़ना सुरत
शब्द
का।
तू तो
सुरत
अब
सुन
मम
वचन, चल और चढ़
सुन
सुन्न
की
धुन।
चलने की तो
करी
तैयारी, स्वामी से यों
वचन
उचारी।
संशय एक
उठा
मोहिं
भारी, सो निरवार कहो
विस्तारी।
सेवा वस
तुम
काल
को, सौंप दिया जब
मोंहिं।
तो अब
कौन
भरोसा
है, फिर भी ऐसा
होय।
तब स्वामी हंस
कर
यों
बोले, कहूं बचन मैं
तुम
से
खोले।
जान बूझ
कर
हम
लीला
ठानी,
मौज
हमारी
हुई
सुन
बानी।
काल रचा
हम
समझ
बूझ
के,
बिना
काल
नहिं
खौफ
जीव
के।
कदर दयाल
नहिं
बिना
काल
के,
मौज उठी तब
अस
दयाल
के।
दिया निकाल
काल
को
व्हां
से, दखल काल अब
कभी
न
य्हां
से।
मैं समरथ
हूं
सब
विधि
जान, वचन मोर तू
निश्चय
मान।
काल न
पहुंचे
उसी
लोक
में, फिर न करूं
कभी
ऐसी
मौज
में।
एक बार
यह
मौज
जरूर, अब मतलब नहिं
डाली
दूर।
।। जय
गुरुदेव नाम प्रभु
का ।।
जयगुरुदेव शाकाहारी परिवर्तन
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