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dushmani ka raj


दुश्मनी का राज
एक राजा के राज्य में बहुत बड़ा सेठ रहता था। उसके पास अपार धन था। एक समय राजा ने सेठ को बुलवाया। राजा सेठ से मिलकर बहुत खुश हुआ और वह बोला कि तुम मेरे महल में आया करो।
अब सेठ बराबर राजा के पास जाने आने लगा। धीरे धीरे दोनों में गाढ़ा प्रेम हो गया। दोनों में कोई कपट भी नहीं था। दोनों निष्कपट थे। दोनों का यह प्रेम बहुत दिनों तक रहा।
एक बार की बात है। सेठ और राजा में बात हो रही थी। बात के दरम्यान राजा ने कहा कि मैं चन्दन का एक मन्दिर बनवाऊंगा। बात आई गई हो गई।
सेठ के मन मे विचार आया कि चन्दन की लकड़ी मैं खरीद लूं, क्योंकि मन्दिर में तो चन्दन की बहुत सी लकड़ियां लग जायेंगी।
मेरे पास लकड़ी होंगी तो मैं राजा को दे सकूंगा। यह सोचकर सेठ ने जहां से भी लकड़ी मिली, सब खरीदकर स्टॉक कर लिया। अब उसके पास चन्दन की लकड़ियों का बड़ा स्टॉक था, इसमें उसके पैसे भी बहुत फंस चुके थे।
इधर राजा ने दुबारा कभी मन्दिर की बात नहीं की। अब सेठ को गहरा सदमा लगा। वह सोचने लगा, मेरा तो बहुत पैसा फंस गया और राजा मन्दिर नहीं बनवा रहा है। इस बात को लेकर उसके मन में दरार भी पड़ गई।
मन में जैसे भाव उपजते हैं, व्यक्ति का बोल और व्यवहार भी वैसा ही बन जाता है। इस कारण राजा को सेठ का भाव समझते देर नहीं लगी और अब दोनों  एक दूसरे के जानी दुश्मन बन गए।
लेकिन अचानक विचारों में परस्पर पैदा हुए दुश्मनी के विचार पर भी राजा समझ नहीं पा रहा था कि इस दुश्मनी की जड़ क्या है ?
पहले राजा की अपनी बुद्धि जब काम नहीं करती थी तब वह उस समय के किसी जानकार महात्मा के पास चला जाता था। वहां उसकी समस्या का निदान मिल जाता था। सो वह राजा एक महात्मा के पास चला गया।
राजा ने सेठ की सारी बात महात्मा से बताई और पूछा कि हम दोनों में यह दरार क्यों पड़ गई ऐसा क्या हुआ? महात्मा जी दिव्य दृष्टि वाले थे इसलिए वे उस दुश्मनी का राज जान रहे थे, परन्तु वे विशेष बातों में उलझाकर राजा से सीधा उपाय बतलाते हैं।
उन्होने कहा कि राजन्!  तुम एक चन्दन का मन्दिर बनवाओ, लोग तुम्हें बहुत दिनों तक याद रखेंगे, ऐसा भव्य मन्दिर बनवाओ।
अब राजा ने घोषणा कर दी कि चन्दन का मन्दिर बनवाऊंगा। चन्दन की लकड़ी लेने के लिए राजा के आदमी चल पड़े तो लकड़ी केवल सेठ के यहां मिली। मन्दिर का काम शुरु हो गया। इतनी लकड़ियां लगी कि सेठ की सारी लकड़ियां मन्दिर के काम गईं।  अब मन्दिर तैयार हो गया।
अब इधर सेठ जी का भी सारा फसा पैसा वापिस गया था। अब सेठ की सारी चिन्ता दूर हो गई थी, इसलिए अब उसके मन से राजा के प्रति दुश्मनी का भाव जाता रहा और दोनों फिर से दोस्त बन गए।
राजा को महात्मा ने समझाया कि देखो, यह माया की छाया है। निष्कपट रहो, कोई दुराव छिपाव हो तो दोस्ती निभ जाती है, नही तो ये दोस्त दोस्त को अलग कर दे, मित्र मित्र, सहेली सहेली, नाते रिश्ते में खटास पैदा कर दे।
पैसा मिल जाए, हिसाब पूरा हो जाए, तो सब दुश्मनी खत्म।
स्वामीजी महाराज कहा करते थे कि देखो, इसी पैसे की वजह से दोनों के बीच कितनी दरार पड़ गई? मन्दिर तो कर्जे को अदा करने का एक आधार था।
सच्चे महात्मा कर्मो का लेनदेन चुकाने के लिए कोई आधार खड़ा कर देते हैं। इससे देने वाले का देना और लेने वाले का लेना पूरा हो जाता है। यह सूक्ष्म विज्ञान आपको क्या पता।
अब देखो, महात्मा थे तो दोनों का झगड़ा कैसे खत्म कर दिया और  फिर दोनों कैसे मिल गए।
जयगुरुदेव|

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