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shiv netra kaise khulega


जयगुरूदेव......
आध्यात्मिक सवाल जवाब
प्रश्न ४६. स्वामी जी ! शिव नेत्र कैसे खुलेगा ?
उत्तर-  जीवात्मा में जो आंख है उसको शिवनेत्र, तीसरी आंख कहते हैं |
इस मनुष्य शरीर में दोनों आंखों के पीछे जीवात्मा का निवास है| यही तीसरा तिल है और इसी स्थान पर ध्यान को जमाया जाता है |
आसमान के ऊपर से आवाज रही है | 10 प्रकार की आवाजें तीसरे तिल में रही हैं | इन आवाजों को सुनकर अपनी आवाज को छांटो जो तुम्हें नाम दान के वक्त में बताया गया है|  यानी घंटे की आवाज को छांटकर पकड़ना है और अन्य सभी आवाजों को छोड़ देना है |
जब संपूर्ण ध्यान आवाज को सुनने में लग जाएगा तब चुंबक की तरह आवाज यानी शब्द जीवात्मा को अपनी तरफ खींचती है | और खींचते खींचते अपने में मिला लेती है | फिर चेतन आत्मा इस जड़ शरीर से अलग हो जाती है | एक बार इस स्थिति को पार कर लेने के बाद मौत का डर समाप्त हो जाता है| और दिन में जब चाहे शरीर से अलग होकर ऊपर के लोकों में जाओ | देवी देवताओं से मिलो बातें करो और पुनः शरीर में वापस जाओ |
गुरु भी उधर उस सृष्टि में मिलते हैं और बराबर संभाल करते रहते हैं|
 ऊपर में लिंग शरीर है और लिंग लोक है | इस सीमा को पार करने के बाद जीवात्मा सूक्ष्म लोक में प्रवेश करती है और सूक्ष्म शरीर धारण कर लेती है |
सुक्ष्म शरीर निरंजन भगवान का अति सुंदर है इसीलिए उन्हें श्याम सुंदर कहा गया है |
तुम भजन करो और रुहानी मंजिलों को पार करते हुए अपने सच्चे वचन सत्य लोक पहुंचो|
वह मालिक तुम्हारा इंतजार कर रहा है|
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प्रश्न ४७. स्वामी जी! एक वक्त में क्या कई संत सतगुरु हो सकते हैं ?
उत्तर- पहले यह समझ लो कि संत सतगुरु कहते किसे हैं |
संत सतगुरु सर्वशक्तिमान होते हैं और सतलोक में बराबर आते जाते रहते हैं |
वह ईश्वर, खुदा, ब्रह्म, पारब्रह्म, अल्लाह सब के मालिक होते हैं|
उन से बड़ा कोई नहीं | रुहानियत में जाति और कोम का कोई सवाल नहीं | मुसलमान फकीरों ने उस हक को, सत्य नाम को प्राप्त किया | संत सतगुरु और फकीर में कोई अंतर नहीं |
यह कोई जरूरी नहीं कि सारी दुनिया में या देश में एक ही गुरु हों| एक ही समय में कई गुरु हुए हैं |
गुरु नानक और कबीर साहब एक ही समय में हुए थे | इसी प्रकार दादू साहब और गुरु अर्जुन देव जी भी समकालीन थे | परंतु सभी समय में इन संतों का उपदेश एक ही होता है | सुरत शब्द योग का और पांच नाम का सभी ने वर्णन किया है |
पहले के संतो ने जीवो पर संस्कार बहुत डालें यही कारण है कि लोगों की रुचि संतमत में होने लगी है |
जिन्हें नामदान मिलता है उनकी दीक्षा का समय निश्चित रहता है|
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 प्रश्न ४८. स्वामी जी ! झिलमिल ज्योति क्या होती है?
उत्तर- जब साधक ध्यान करता है और उसकी आंख के ऊपर का पर्दा फटता है तो तीन तरह की ज्योति दिखाई पड़ती है | पहली झिल मिल ज्योति दूसरी अग्रज्योति और तीसरी सिखा ज्योति |
झिलमिल ज्योति में विष्णु का वास है| वे शंख चक्र, पदम, गदा धारण किए हुए हैं | और उनकी शक्ल या शंख, चक्र, पदम, गदा ऐसा नहीं जैसा की मूर्ति में तुम यहां देखते हो | वह अजीब ही है|
उनके साथ में लक्ष्मी जी रहती हैं| परंतु ऐसी लक्ष्मी नहीं जैसी तुम यहां देखते हो |
विष्णु भगवान सृष्टि में पालन का काम देखते हैं |
अग्रज्योति में ब्रह्माजी चतुरानन स्वरुप में दिखाई देते हैं | उनका स्वरूप भी यहां जैसा नहीं जो दिखाया जाता है | उनके साथ सावित्री रहती हैं | ब्रह्मा उत्पत्ति का कार्य करते हैं|
शिखा ज्योति में शिव जी का दर्शन होता है | जटाजूट के साथ अजीब सुंदर सूरत वहां दिखाई पड़ती है |
शिवजी प्रलय यानी संहार का काम करते हैं | उनके साथ पार्वती हैं |
यह वह पार्वती नहीं जो यहां मृत्यु लोक में आई थी |इन सबके ऊपर चौथी ज्योति है|  यह ज्योति इन तीनों देवताओं की माता है जिन्हें आध्या महाशक्ति कहते हैं | इसी ज्योति में उनका दर्शन होता है |
चाहे विष्णु को पाना हो या ब्रह्मा या शिव को पाना हो | दिव्य चक्षु शिव नेत्र का खुलना आवश्यक है|
 उस आंख के खुलने पर किसी भी देवी देवता के दर्शन हो सकते हैं |
जीवात्मा इस शरीर में दोनों आंखों के पीछे बैठी है | उसमें एक आंख है जिसे तीसरी आंख कहते हैं | वह चेतन है| चेतन आंख से ही चेतन देवी देवता या परमात्मा का दर्शन किया जाता है|
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प्रश्न ४९. स्वामी जी ! भजन में जीवात्मा शरीर से कब अलग होती है ?
उत्तर- भजन करो या ध्यान करो जब मन की एकाग्रता होती है और आत्मा दोनों आंखों के ऊपर तीसरे तिल में पहुंचती है तब इस स्थूल चोले को उतार देती है | यानी उस समय वह जड़ शरीर से निकल कर बाहर खड़ी हो जाती है | स्थूल चोले से आजाद हो जाती है |
यह ठीक वैसे ही होता है जैसे हम अपना कोर्ट उतार देते हैं |
सहसदल कमल के ऊपरी भाग में आत्मा सूक्ष्म चोला भी उतार देती है | और त्रिकुटी के ऊपरी भाग में कारण चोले को भी छोड़ देती है|
 जब एक आत्मा स्थूल लिंग सूक्ष्म तथा कारण शरीरों में रहेगी जन्म-मरण बराबर होता रहेगा| प्रत्येक मौत के साथ इसका शरीर बदलता है लेकिन आत्मा अविनाशी है |
शरीर का परिवर्तन या विनाश होता है पर आत्मा का नहीं|
 आत्मा पिछले कर्मों के अनुसार नया जीवन धारण करती है | कर्म के बगैर काया नहीं होती और काया के बगैर कर्म नहीं होते|  प्रत्येक कर्म जो किया गया है अपना असर मन पर छोड़ गया है| यह अभी हमारी स्मृति में भले ही ना हो पर यह कभी भी उपस्थित हो सकता है |
बात यह है कि संस्कार मन में बने रहते हैं अपने समय पर प्रकट होते हैं|
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प्रश्न ५०. स्वामी जी ! मरने के बाद आत्मा किस तरह शरीर से खिंचती है ?
उत्तर-  जिस तरह से आत्मा शरीर में आती है उसी तरह से वापस जाती है | जीवात्मा दोनों आंखों के पीछे तीसरे तिल में ठहरी है| यह सूर्य की तरह है |
तीसरे तिल में इसकी किरणें नाभि से टकराकर सारे शरीर में फैलती हैं और सारे शरीर को जीवन देती हैं |
मौत के वक्त आत्मा की किरणें सिमटकर पहले नाभि में एकत्रित होती हैं | उस समय नाड़ी छूटने लगती है | वह घबराहट का समय होता है |
ऊपर में तीन रास्ते हैं | सतगुरु दाएं तरफ सफेद स्थान पर बैठक रखते हैं | काल बाई तरफ श्याम स्थान पर खड़ा रहता है | और आत्मा को बीच के रास्ते से जाना पड़ता है |
सत्संगी की रुह को सतगुरु बाईं ओर जाने के पहले ही संभाल लेते हैं और काल के हवाले नहीं होने देते |
जीवात्मा सतगुरु के पीछे पीछे खिंची चली जाती है | अगर उसकी इच्छा दुनिया में है तो ऊंचे स्थानों तक नहीं जा सकती | यदि जीवात्मा की इच्छा दुनिया में नहीं है फिर वो उढ़ती चली जाएगी |
कहां तक किस स्थान तक वह उड़ जाएगी यह उसके गुरु के प्रति प्रेम प्रीत शौक और कर्मो पर निर्भर करता है|
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प्रश्न ५१. स्वामी जी ! ध्यान के समय आसमान में चमकते तारे दिखाई देते हैं फिर गायब हो जाते हैं ऐसा क्यों ?
उत्तर - इस आसमान के ऊपर से प्रथम में साधना का प्रारंभ होता है जहां तारामंडल है और वह कभी लोप नहीं होता | यह चंचल मन है जो हिलता रहता है उसे नहीं देख पाता | जीवात्मा अंदर जाती है और लौट आती है| वहां फाटक है जिसे तोड़ना पड़ता है तब आध्यात्मिक यात्रा शुरु होती है | फाटक के टूटते ही शब्द यानी नाम प्रगट हो जाता है और मधुर मधुर राग रागिनियां सुनाई देने लगती हैं |
आत्मा उन्हें सुनकर जाग जाती है होश में जाती है और मन मूर्छित होने लगता है |
अंदर की संगीत को सुनने के बाद यदि किसी को बादशाहत भी मिल जाए तो वह उसे ठोकर मार देता है | बादशाहत जड़ है और संगीत चेतन है | जड़ से चेतन का मिलाप कभी नहीं हो सकता |
एक बार आत्मा जाग जाए तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार सभी वश में जाते हैं लेकिन वह अवस्था अभी तुम्हें प्राप्त नहीं हुई है |
जब तुम गुरु के नूरानी स्वरुप का दर्शन करोगे और तुम्हारी आत्मा जब उस में लीन हो जाएगी तब वह अवस्था तुम्हें प्राप्त होगी| अभी परिवर्तन की अवस्था है| आत्मा युगों युगों से बाहर रहने की आदी है और तुम उसे अंदर ठहरने पर मजबूर कर रहे हो|
 अभी तो शरीर के प्रत्येक अंग में आत्मा फैली हुई है | इसका सिमटाव करने में समय लगता है| जब यात्रा का यह भाग तय कर लिया जाता है तब आगे का रास्ता आसान है| फिर निर्मल आत्मा अंदर के चुंबकीय संगीत से आकृष्ट हो जाती है|
जयगुरुदेव 

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